भाजपा का U-टर्न: धनखड़ से राधाकृष्णन तक, उपराष्ट्रपति पद पर क्यों बदला खेल?

भाजपा का U-टर्न: धनखड़ से राधाकृष्णन तक, उपराष्ट्रपति पद पर क्यों बदला खेल?

भाजपा का U-टर्न: धनखड़ से राधाकृष्णन तक, उपराष्ट्रपति पद पर क्यों बदला खेल?
भाजपा का U-टर्न: धनखड़ से राधाकृष्णन तक, उपराष्ट्रपति पद पर क्यों बदला खेल?

सोचिए, अभी कुछ हफ्ते पहले ही तो जगदीप धनखड़ ने उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा दिया था। और अब? भाजपा ने अपना नया उम्मीदवार पेश कर दिया है – सी.पी. राधाकृष्णन। पर ये कोई साधारण बदलाव नहीं है, दोस्तों। ये तो एकदम 180 डिग्री का मोड़ है! जिस धनखड़ साहब की शैली आक्रामक और टकराव वाली थी, उसकी जगह अब राधाकृष्णन जैसा शांत, समावेशी और अनुभवी चेहरा सामने है। क्यों? चलिए, पूरी कहानी समझते हैं।

धनखड़ बनाम राधाकृष्णन: दो अलग दुनिया के नेता

  1. चरित्र और शैली:

    • जगदीप धनखड़: जाने-माने वकील। मुखर, आक्रामक और अक्सर विवादों में घिरे रहने वाले। बंगाल के राज्यपाल रहते ममता बनर्जी सरकार से उनका टकराव अक्सर सुर्खियां बटोरता रहा। राज्यसभा सभापति बनने के बाद भी उनकी तीखी टिप्पणियां और ‘कठोर’ अंदाज़ विपक्ष के निशाने पर रहा। विपक्ष तो उन्हें पक्षपाती तक कहता था।

    • सी.पी. राधाकृष्णन: इनकी छवि एक सौम्य, विचारवान और संवाद करने वाले नेता की है। भले ही उन्होंने DMK की आलोचनाओं का जवाब दिया हो या उदयनिधि स्टालिन की टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया दी हो, लेकिन उनकी भाषा और तरीका धनखड़ साहब से बिल्कुल अलग रहा। उन्हें संस्थानों को चलाने का अनुभव है और संतुलन बनाने वाला माना जाता है।

  2. राजनीतिक पृष्ठभूमि और जुड़ाव:

    • धनखड़: इनका मुख्य आधार जाट समुदाय था। 2022 में किसान आंदोलन के बीच उनका चुनाव एक सामाजिक-राजनीतिक संदेश था। वे ज्यादा व्यावहारिक राजनीतिक विकल्प लगते थे। आरएसएस से उनका गहरा या लंबा सीधा जुड़ाव नहीं माना जाता था।

    • राधाकृष्णन: ये तो पूरी तरह जनसंघ (भाजपा की पूर्ववर्ती संस्था) और आरएसएस की पैदाइश हैं। 17 साल की उम्र से ही इनका इन संगठनों से जुड़ाव रहा है। इन्हें भाजपा का वैचारिक रूप से मजबूत स्तंभ माना जाता है। इनका चयन दक्षिण भारत में भाजपा के विस्तार और ओबीसी समुदाय तक पहुंच बनाने की रणनीति का हिस्सा भी लगता है।

CP Radhakrishnan VP candidate
CP Radhakrishnan VP candidate

भाजपा का राजनीतिक गणित: क्यों बदला पासा?

  1. राज्यसभा का मिजाज बदला: धनखड़ साहब का आक्रामक रुख राज्यसभा में अक्सर तनाव पैदा करता था। आम सहमति बनाना मुश्किल हो गया था। भाजपा को अब ऐसे चेहरे की जरूरत महसूस हुई जो विवादों में न घिरे, बातचीत से काम निकाल सके और सदन का कामकाज सुचारू रूप से चला सके। राधाकृष्णन का शांत और संस्थागत अनुभव वाला व्यक्तित्व इस भूमिका के लिए बेहतर फिट लगता है।

  2. जाति और क्षेत्र का नया समीकरण: धनखड़ का चयन मुख्यतः जाट समुदाय को खुश करने और उत्तर भारत में संदेश देने के लिए था। राधाकृष्णन का चयन अलग संदेश देता है। ये दक्षिण भारत (तमिलनाडु से ताल्लुक) के नेता हैं और ओबीसी समुदाय से आते हैं। ये भाजपा की कोशिश है कि दक्षिण में पैर जमाए (खासकर कर्नाटक के बाद अन्य राज्यों में) और राष्ट्रीय समावेशिता का प्रतीक बने।

  3. वैचारिक शुद्धता का संकेत: जहां धनखड़ को एक व्यावहारिक चुनाव माना गया, वहीं राधाकृष्णन का नामांकन भाजपा-आरएसएस के मूल वैचारिक ढांचे के प्रति निष्ठा दिखाता है। ये एक ‘इनसाइडर’ हैं, जिन्हें संगठन का पूरा भरोसा है।

CP Radhakrishnan VP candidate
CP Radhakrishnan VP candidate

धनखड़ का इस्तीफा: क्या था असली कारण?

धनखड़ साहब ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर इस्तीफा दिया था। लेकिन राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि संसद सत्र के पहले दिन ही हुआ एक बड़ा विवाद इसकी वजह बना। विपक्ष ने न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग चलाने का प्रस्ताव रखा था और कहा जाता है कि सभापति धनखड़ ने सरकार को बिना पूरी तरह सूचित किए इसे स्वीकार कर लिया। इससे सरकार के लिए अप्रत्याशित स्थिति पैदा हो गई। कई लोग मानते हैं कि यही वो तुरुप का पत्ता था जिसके बाद उनका जाना तय हो गया।

Rajya Sabha functioning
Rajya Sabha functioning

आगे का रास्ता: क्या बदलेगा?

सी.पी. राधाकृष्णन के नाम पर विपक्ष के भीतर भी सहमति की संभावना ज्यादा दिख रही है, क्योंकि उन पर ‘पक्षपाती’ होने का इल्जाम नहीं है। अगर वे चुन लिए जाते हैं, तो उम्मीद की जा सकती है कि राज्यसभा में वाद-विवाद की संस्कृति वापस लौटेगी और सुचारू कामकाज हो सकेगा। यह भाजपा की कोशिश है कि उपराष्ट्रपति पद जैसे संवैधानिक पद पर एक सर्वसम्मत और सम्मानित चेहरा हो जो विवादों से दूर रहे।

सबक क्या है?

यह बदलाव साफ दिखाता है कि राजनीति में समय और जरूरत के हिसाब से रणनीति बदलती रहती है। जिस धनखड़ को कभी ‘कठोर प्रवर्तक’ की जरूरत थी, अब उसकी जगह एक ‘शांतिदूत’ की मांग है। भाजपा ने दक्षिण और ओबीसी की ओर कदम बढ़ाते हुए अपने वैचारिक मूल की ओर भी लौटने का रास्ता चुना है। अब देखना यह है कि क्या यह 180 डिग्री का मोड़ भाजपा को नई राजनीतिक ऊंचाइयों तक ले जाता है और क्या राज्यसभा वाकई एक अधिक संतुलित और कामकाजी सदन बन पाता है। ये तो वक्त ही बताएगा!

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